Monday, September 16, 2019

ट्रैफ़िक नियम नेताओं और मंत्रियों पर क्यों नहीं लागू होते

जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के लिए 'एक देश एक क़ानून' का नारा गढ़ा गया.
नए मोटर वाहन क़ानून में सख्त ज़ुर्मानों को सही ठहराने के लिए नितिन गडकरी ने आम जनता से क़ानून के पालन की संस्कृति बनाने को कहा.
ट्रैफ़िक पुलिस की सीटी पर रुककर, गाड़ी की क़ीमत से ज़्यादा लगाए जा रहे जुर्माने को राष्ट्रीय कर्तव्य बताया जा रहा है. संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सड़क दुर्घटनाओं से हो रही मौतों से लोगों को बचाना, निश्चित तौर पर सरकार की ज़िम्मेदारी है.
परन्तु अनुच्छेद 14 के तहत क़ानूनों को बराबरी से लागू करने से सरकार कैसे इनकार कर सकती है?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में गाड़ियों से लाल और नीली बत्ती हटाकर वीआईपी संस्कृति को कम करने की कोशिश हुई थी.
नए मोटर वाहन क़ानून के आम जनता पर एकतरफ़ा अमल से यह ज़ाहिर है कि देश में शासक-वर्ग यानी नेताओं के लिए अब भी अभिजात्य व्यवस्था का दौर जारी है.
पुलिस अधिकारी यदि क़ानून तोड़ें, तो दुगने जुर्माने का क़ानून बनाया गया है. क़ानून बनाने वाले माननीय नेता लोग यदि इन कानूनों को तोड़ें तो पाँच गुना जुर्माने का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?
सोशल मीडिया के डिज़िटल दौर में अब, चुनावी रैली के लिए वास्तविक भीड़ जुटाना राजनेताओं के लिए बड़ी चुनौती बन गया है. इसलिए अब सड़क की भीड़ में ही रैलियां करने का जुगाड़ नेताओं की नई खोज है, जिसे आम भाषा में रोड-शो कहा जाता है.
रोड-शो में स्टार प्रचारक और वाहनों के काफ़िले का टीवी में सीधा प्रसारण होने से, देश भर में चुनावी फिज़ा बन जाती है. पर अगर इसका क़ानूनी पक्ष देखें तो रोड-शो में भाग ले रहे सभी वाहनों और चालकों को स्थानीय प्रशासन के साथ रजिस्ट्रेशन कराने के नियम के साथ, ट्रैफिक नियमों के पालन की अनिवार्यता है.
चुनाव आयोग के नियम के अनुसार रोड-शो छुट्टियों में या उस समय आयोजित होना चाहिए, जब आम जनता को असुविधा नहीं हो. नियम के अनुसार स्कूल, अस्पताल, ब्लड बैंक और अन्य ज़रूरी सुविधाओं वाले इलाक़ों में रोड शो का आयोजन नहीं किया जाना चाहिए.
रोड-शो के काफिले में 10 से ज़्यादा गाड़ियां नहीं हो सकतीं. चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन की अनुमति के नाम पर आयोजित हो रहे इन रोड-शो में मोटर वाहन क़ानून के साथ आईपीसी और अनेक चुनावी क़ानूनों का धड़ल्ले से उल्लंघन होता है.
इस अराजकता को रोकने के लिए आम चुनावों के पहले सीएएससी संस्था के माध्यम से राज्यों के चीफ़ सेक्रेटरी और पुलिस महानिदेशकों को प्रतिवेदन भेजे गए, परन्तु कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब हरियाणा और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
नए ट्रैफ़िक नियमों के अनुसार रोड शो के दौरान एम्बुलेंस या आपातकालीन सेवा में रुकावट आने पर हर वाहन चालक पर 10000 रुपए से पाँच गुना जुर्माना लगना ही चाहिए.
नाबालिग़ के अपराध के लिए अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है तो फिर समर्थकों की ओर से क़ानून तोड़ने पर, प्रत्याशी की जवाबदेही क्यों नहीं होनी चाहिए?
ख़तरनाक ड्राइविंग, हेलमेट नहीं पहनने और शराब पीकर, रोड-शो में गाड़ी चलाने वाले समर्थकों के क़ानून तोड़ने पर प्रत्याशी के ख़िलाफ़ भी जुर्माना लगने पर सही मायने में देश में क़ानून का राज आएगा.
रथयात्रा के ट्रेंड की शुरुआत आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने सन 1982-83 में किया था, जिसे आडवाणी ने राष्ट्रव्यापी विस्तार दे दिया.
लोकतंत्र में सेवक कहे जाने वाले सभी दलों के नेता, भव्य सुविधा वाले इन रथों पर सवार होकर जनता से मिलने का छलावा करते हैं.
इन रथों में बड़े पैमाने पर अवैध रक़म खर्च होती है, जिस वजह से आरटीओ में रजिस्ट्रेशन में भी कोई दिक्कत नहीं होती. पर सच यह है की राजमहल की विलासिता वाले चुनावी रथों को मोटर वाहन क़ानून के तहत कोई मान्यता नहीं है.
आम आदमी अपनी गाड़ी में छोटे बदलाव करे या सामान रखने के लिए निजी गाड़ी में यदि कोई कैरियर भी लगवा ले तो शहरों में पुलिसिया चालान हो जाता है. भीड़ भरे व्यवसायिक वाहनों से बने चुनावी रथ में खड़े नेताओं का अभिवादन और सड़कों पर कार्यकर्ताओं का हुजूम ग़ैर-क़ानूनी है.
चुनावी रथ और उस पर चलने वाले नेताओं का सीट बेल्ट नहीं पहनने, और वाहनों में ओवरलोडिंग के लिए यदि भारी जुर्माना लगे तो फिर आम जनता पर नियमों को लादना शायद आसान हो जाय!
मोटर वाहन क़ानून के अनुसार पॉल्यूशन सर्टिफिकेट न होने पर जुर्माने का प्रावधान है. सड़कों पर ग़ैर-ज़िम्मेदार तरीक़े से वाहन चलाने और रेसिंग पर भी नए क़ानून के अनुसार जुर्माने का प्रावधान है.
इन क़ानूनों का मक़सद आम लोगों की सुरक्षा के साथ पर्यावरण संरक्षण करना भी है. फिर इन क़ानूनों को नेताओं की बाइक रैलियों पर क्यों नहीं लागू नहीं किया जाता?
देश में करोड़ों लोगों का सीट बेल्ट और हेलमेट नहीं पहनने पर चालान हो रहा है. परन्तु बगैर हेलमेट के चुनावी झंडों के साथ मदमस्त बाइकर्स के डराते हुजूम के नेताओं पर जुर्माना क्यों नहीं लगता?
सुशासन के नाम पर बनी आम आदमी पार्टी के नेताओं ने वर्ष 2011 में मुंबई से बाइक रैली के ट्रेंड की शुरुआत की थी. उसके बाद हरियाणा में भाजपा नेताओं ने एक लाख बाइक की रैली से नया राजनीतिक कीर्तिमान तो बनाया, परन्तु सड़क सुरक्षा के सारे क़ानून ध्वस्त हो गए.
नई क़ानूनी व्यवस्था के तहत दो पहिया वाहनों में ओवरलोडिंग पर 20 गुना जुर्माने का प्रावधान है. सवाल यह है कि रोड-शो के दौरान वाहनों की ओवरलोडिंग के लिए राजनेताओं के गैंग पर जुर्माना लगा कर, नई मिसाल क्यों नहीं कायम की जाती?